साक्षात अपरोक्ष!
सप्टे 11 , 2008; भारतियसमय : रात के 8।30 एकांत सत्संग
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सदगुरुदेव संतशिरोमणि परमपूज्य श्रीआसारामबापूजी की अमृतवाणी :- *************************************************
परमात्मा अपरोक्ष भी नहीं है… साक्षात् परोक्ष है…।
अगर स्वर्ग आप ने नहीं देखा तो अपरोक्ष है , और स्वर्ग मे गए तो परोक्ष हो गया… ऐसे ही आत्मा परमात्मा साक्षात् अपरोक्ष है…
हमारी आँखे जिस को देखती वो साक्षात् है ....
परमात्मा की सत्ता से आँखे देखती है… अपना जो आपा है , उस को बोलते है "साक्षात् अपरोक्ष"
“जो साहिब सदा हजुरे अँधा जानत ताको दूरे ”
जो जैसे शरीर में बैठा है , कुविचार में बैठा है , सत्कर्म में बैठा है , व्यर्थ कर्म में बैठा है , वैसा ही वो व्यवहार कर रहा है… क्यों की जो साक्षात अपरोक्ष है , उधर को गति नहीं हुयी ........!
मौलाना जलालुद्दीन राजसी ठाठ से रहेते …सब कुछ देखने के बाद लगा की आयुष्य तो नष्ट हो रहा है… तो बड़े घराने के लोग भी फकीर हो जाते…बुध्द फकीर हो गए… मैं एक आइएस ऑफिसर को जानता हूँ , जो फकीर बन गए, संत बन गए… अभी ८७ साल के है…. ५० साल से साधू बन गए है …
(कितने भी सुख भोगे तो भी )‘आखिर आयुष्य तो नष्ट हो रहा है’… शरीर छुट जायेगा तो बाद में भी हम रहेंगे… तो हम कौन है?ऐसी तड़प बढ़ जाती है…
जैसे मोरारजी भाई बोलते कि, प्रधान मंत्री पद में वो शांति नहीं मिली, जो रमण महाराज के चरणों में मिली …
साक्षात् अपरोक्ष का जो सामर्थ्य है उसी से काम चलता सृष्टी का .......उस को नहीं जानते इसलिए सारा करा कराया चला जाता… इसलिए शरीर को अपना मानते, वस्तुओ को ‘मेरा’ मानते …
पड़ा रहेगा माल खजाना, छोड़ त्रिया सूत जाना है l
कर सत्संग अभी से प्यारे , नहीं तो फिर पछताना है ll
(त्रिया माने स्री /पत्नी और सूत माने बेटा)
तो सत्य का संग करो.. जो सत् स्वरुप है ॥ ज्ञान स्वरुप है ..जिसका कोई अंत नहीं है , उस ब्रम्ह स्वरुप का ज्ञान पा लिया , अनुभव पा लिया तो साक्षात् अपरोक्ष "परोक्ष" हो गए !!
मनं तू ज्योति स्वरुप अपना मूल पहेचान l
…औखी घड़ी आती तो मृत्यु के एक झटके से सब पसार हो जायेगा… क्यों की जो साक्षात् है , उस का पता नहीं है, उस को जानते नहीं है…।ब्राम्ही स्थिति प्राप्त कर….(सभी भक्त गा रहे है॥)
ब्राम्ही स्थिति प्राप्त कर , कार्य रहे ना शेष l
मोह कभी ना ठग सके , इच्छा नहीं लवलेश ll
पूर्ण गुरु कृपा मिली , पूर्ण गुरु का ज्ञान l
आसुमल से हो गए ,साईं आसाराम ल
खाली आसुमल से आशाराम हो गए ऐसा नहीं …
गदाधर के सामने काली माता प्रसन्न हो कर प्रगट हो जाती थी…(तो भी काली माँ ने कहा कि, 'तोतापुरी गुरु से दीक्षा ले लो' , तो गदाधर बोलते ) “माँ, मैं गजरा बना के लाता हूँ , तो तुम स्वीकार करती हो … मेरे सूंघे हुए फूल भी मैं प्रेम से देता हूँ तो आप स्वीकार कर लेती हो..(तो भी क्यों ?...गुरु के पास जाने क्या जरुरत है?)
............ ‘प्रेम’ तो वशीकरण मंत्र है .......शिव जी का ऐसा प्रेम.. ऐसी प्रेम की निगाह.. ऐसा प्रेम का भाव कि , जिस पर पड़े निहाल हो जाए!… तो वो प्रेम स्वरुप नित्य नविन उस में टिके है शिव जी और श्रीकृष्ण …उस में जो जितने टिके है, उतने ही लोग खींचे चले आते है…!
…और प्रेम किस से होता है? जिस में ‘अपनत्व’ है , उस में प्रिती होती .....अपनापन जहाँ से शुरू होता है , वो है "साक्षात् अपरोक्ष "…!
जाती प्रिय, परिवार प्रिय , पत्नी प्रिय..शरीर प्रिय …तो शरीर पर मुसीबत आती है ..तो स्थूल इन्द्रिय तो हाथो से बचाती है.. जो ज्यादा नजदीक है उस को रक्षा में लगाते …फिर भी किसी को पूछे कि, फांसी चाहते या हाथ कटवाओगे तो बोलेंगे कि, 'हाथ कटवाना ठीक है , जान तो बचेगी'….ऐसे आत्मा के नजदीकी जो चीज हो गयी उस को बचायेगा और जो दूर है उस को कुर्बान करेगा……..
शरीर से भी अपना आपा अधिक प्रिय है , तो अपने आपा पर कोई मुसीबत आई तो शरीर की बलि देकर भी अपने आपा को सुखी रखना चाहते …।अपना आपा इतना प्रिय होता है की , जिस के लिए शरीर भी दे देते …........ मरते है… तो मैं सुखी हो जावूँ …(ये ही भाव होता है)...
मेरे पिताजी जब अंतिम समय आया , शरीर जरा बीमार रहेता था तो पूछते , “आज कौन सी तिथि है? पंचम है क्या?....एकादशी कब है?…अच्छा कल का दिन भी रहेना पड़ेगा !”
तो भाई पूछते .... “क्या बोल रहे?”
…तो चुप हो जाते…
और जब एकादशी की सुबह हुयी तो , “ये जेठ्ठे, ये जेठ्ठे” .....
(मेरे भाई का नाम था..)..गाय का गोबर ले के आओ… लिंपण करो… और मुझे निचे धरती पर रखो…गीता का पाठ करो …।
जब उन को निचे धरती पर रखा गया तो मेरी माँ को हाथ जोड़े.......
और बोलते "मरने की कला सीखता हूँ..........!जाने अनजाने में जो मैंने २ शब्द बोले माफ कर देना .....”
....माँ तो रोने लगी, "ये क्या बोल रहे?”
…फिर माँ भी बोली की , “आप भी मेरे को माफ कर दो!”…
......तो ये हाथ क्यों जोड़े? ‘गाय का गोबर का लिंपण करो’ क्यों? क्यों की , ‘शरीर छूटे तो छूटे, मैं दुखी नहीं हूँ’…ये ही चाहते..है ना ?
.....तो आप का आपा साक्षात् है… अपरोक्ष है ..जो आप देख रहे वो आप नहीं है…। घर में आए तो घर आप हो गए क्या? ऐसे जो भी शरीर में बैठे हो , उस को ‘मैं’ मान रहे है …आप वो नहीं हो…आप तो चैत्यन्य रूप हो , ज्ञान स्वरुप है ..उस को जब तक नहीं जाना तब तक कुछ नहीं जाना…जिस का आत्म ज्ञान ‘मैं’ तक हो जाता तो हो गया!…तोतापुरी गुरु ने गदाधर से रामकृष्ण देव को प्रगट कर दिया..!!
संत के लिए कुछ (ग़लत भाव से)बोले तो प्रकृति की तरफ़ से उस के तीनो जाए तेज, बल और वंश ....... हम तो चाहते सब का मंगल हो लेकिन प्रकृति नहीं छोड़ती…।प्रकृति के नियम है..
संतो के प्रति आदर होता , प्रेम होता , स्नेह होता तो उन को जो शांति मिलती वो ही जानते है .. …
साक्षात् भगवान ही कर्म का नियामक है, कर्म का प्रेरक है और कर्म का फलदाता है…और वो ही कर्म कराता है...... तो वासना नुसार कर्म करते तो दुर्गति होती… धर्म के अनुसार करते तो कर्म की गति ऊँची होती …।कर्मो से मुक्त होते जाते… धर्म और संस्कृति के लिए कर्म किया तो देर सबेर आप को चमका देता… संस्कृति और धर्म का काम फल देता ही है….और स्वार्थ से करते तो वो थोड़े समय के लिए दिखता है, लेकिन बाद में ऐसे चपेट में आ जाते की क्या बोले……ऐसे कई लोग देखे है …
और ऐसे भी कई लोग देखे है जो सत्संग में आए और उन के जीवन मे बहोत सुंदर परिवर्तन आए…......अगर आप को लाभ हुए है तो ईमानदारी से हाथ ऊपर करो… हम्म्म…तभी तो आते है..आर्थिक, सामाजिक, शारीरिक लाभ तो होते ही है…लेकिन मृत्यु के समय भी अगर इस ब्रम्हज्ञान के सत्संग की याद आ जाए तो ईश्वर की यात्रा कर सकते है !! :-)
....और लाभ तो देख सकते है लेकिन इस ब्रम्हज्ञान का लाभ तो ब्रम्हाजी की तराजू भी नहीं तोल सकती, इतना लाभ होता है !! :-)
…...जो आत्मज्ञान मैं दे रहा हूँ वो वेद प्रमाणित बोल रहा हूँ…अपने अनुभव को छूकर बोल रहा हूँ…इस का लाभ तो होगा… !!
जीभ को तालू में लगा के ६ मिनट तक देखो… कुछ ही दिन में अनुभव होगा… खाली जिव्हा को एक जगह रखने से ऐसा होता है…
विश्वास के साथ करो तो लाभ होगा ही ….वैदिक संस्कृति में बहोत साफ-सुथरा ज्ञान भरा हुआ है….
…तात्विक ज्ञान की गाड़ी तो कभी कभी चलती…।बाकि तो मिडल क्लास की अध्यात्मिक होता है….
जिस को कभी छोड़ ना सके वो साक्षात् अपरोक्ष है आप का आपा है …
क्या करे ? कब मिलेगा॥ऐसे लोगो को बहोत ऊँची बात कही है कबीर जी ने … ‘भटक मुआ…। खोजत खोजत युग गए॥”
पैरो तलें ही अंगूठी या हीरा दबा है, और खोजत फिर रहा है … ऐसे ह्रदय में ही परमात्मा है..और युगों से खोजत फिर रहा है..
...सोचो की कितने भी किमती हीरे मिले , प्रमोशन का लैटर मिल गया महीने में २ करोड़ की आमदनी होगी ऐसा लिखा है …..तो भी ऐसे लैटर को कितनी देर पकड़ कर बैठोगे? साक्षात् के परोक्ष अपरोक्ष सब छुट जायेगा…साक्षात् अपरोक्ष में आओगे नहीं तब तक आप को दुसरे दिन के लिए लायकात नहीं मिलेगी..(सब कुछ छोड़कर जब तक गहरी नींद मे नहीं जायेंगे तब तक दुसरे दिन के लिए फ्रेशनेस नहीं मिलेगी..)
साक्षात् अपरोक्ष के बल से ही सब व्यवहार चलता है ......
.... आत्मा परमात्मा देव साक्षात् अपरोक्ष है ..सपने मे गंगाजी नहाये तो गंगा जी की धारा, नहाने वाले अन्दर बाहर सब आत्मदेव ही है…सब सपना …लेकिन आत्मदेव तो वोही का वोही है ..
...सब कुछ छोड़ के उस की शरण जाते हो , तब सब कुछ लाने की योग्यता लाते हो…। सब कुछ छोड़ना है और उसी को अपना मानते हो…और जो कभी छूटेगा नहीं वो ही पराया लगता है …जिस को अपना मान रहे हो , मर जायेंगे तो सब यहाँ ही छूटेगा…जरा तो रहेम करो …!
नारायण हरी नारायण हरी
....जितने उस प्रभु के पास जाते उतने रसमय होते ........आत्म स्वरुप होते …...तेरे फूलो से भी प्यार॥तेरे कांटो से भी प्यार… क्यों की देनेवाले हाथ प्रभु के है…....... आप को मित्र मिलते है तो आनंद आता की नहीं आता? आता है! क्यों कि वो आप को निकट का लगता है…ऐसे ही जो सब से निकट का साक्षात् अपरोक्ष है , वो अपने को मिलते तो जब सभी में वो ही मित्र दिखाई देता तो कितना आनंद आता होगा सोचो..!!
आप लोग तो नींद में जाते… कैसे पता ही नहीं… हम तो रोज सोते नहीं …साक्षात् अपरोक्ष में जाते… उठे तो भी साक्षात् अपरोक्ष मे ..! : -) …हम नहीं जाते औरो के जैसे ऐटैच टॉयलेट में ! :-) ..हम तो सीधा साक्षात् अपरोक्ष में …!! इसलिए तो आजकल बापू कैसे लगते ? ..ज्यादा आनंदित …ज्यादा निर्भीक…ज्यादा उत्साहीत लगते है की नहीं ?…तो ये बात है!.. तो साक्षात् अपरोक्ष है ना …:-)
नारायण हरी
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय… प्रिती देवाय … माधुर्य देवाय… शक्ति देवाय…!
कितने भी मन्दिर मस्जिद जाओ....... भगवान कहा होगा?..
साक्षात् भगवान के सत्ता से ही दिखेगा जो भी दिखेगा… …क्या ख़याल है? …उस बड़े की बडाई कोई माप नहीं सकता…एई है :-)
प्रभु तेरी जय हो......! वो मधुमय है, इसलिए माधव है.. इन्द्रियों के द्वारा विचरण करता इसलिए गोविन्द है.. इन्द्रियों का पालन करता (गो माना इन्द्रिय) इसलिए गोपाल है… कभी छुटता नहीं इसलिए वोह अच्युत है …रोम रोम में रमता इसलिए राम है …चित्त की धाराओं मे रमण करता इसलिए राधा रमण है…।
तस्याहम सुलभं पार्थ…।
श्रीकृष्ण कहेते मैं उस को सुलभ हूँ जो मुझ मे नित्य है…....कितना भी एम् ए पढो का पढो बी ए पढो… मैं तो कहेता हूँ दसवी की क्लास भी सुलभ नहीं जितना भगवान को पाना सुलभ है!!…४०साल से भी नहीं मिलते तो उस की मांग नहीं, प्रिती नहीं इसके लिए नहीं मिलते…असली मांग , असली प्रिती नहीं इसलिए दुर्लभ होते है l
.....कितना सुलभ है !
...परीक्षित को ७ दिन में मिल जाता ! कोई दसवी की परीक्षा पास होगा क्या ७ दिन में?…
भगवान नहीं मिलते तो वो तो कभी बिछडा ही नहीं है ..
नारायण नारायण ...
‘बापू मिलते नहीं, एकांत में है’ बोलते फिर भी हॉल तो भर गया है!!
…एक लेख किसी ने पढ़कर सुनाया…।दिल उँडेल दिया है लेखक ने....... :-)
(पंजाब केसरी नाम की मासिक पत्रिका में “संत समाज की अग्नि परीक्षा” नाम का लेख आया है…)नारायण नारायण नारायण नारायण
( हरी ॐ!सदगुरुदेव जी भगवान की जय हो!!!!!
गलतियों के लिए प्रभुजी क्षमा करे…।)
Tuesday, September 16, 2008
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