Tuesday, September 16, 2008

साक्षात अपरोक्ष!

साक्षात अपरोक्ष!

सप्टे 11 , 2008; भारतियसमय : रात के 8।30 एकांत सत्संग


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सदगुरुदेव संतशिरोमणि परमपूज्य श्रीआसारामबापूजी की अमृतवाणी :- *************************************************

परमात्मा अपरोक्ष भी नहीं है… साक्षात् परोक्ष है…।



अगर स्वर्ग आप ने नहीं देखा तो अपरोक्ष है , और स्वर्ग मे गए तो परोक्ष हो गया… ऐसे ही आत्मा परमात्मा साक्षात् अपरोक्ष है…



हमारी आँखे जिस को देखती वो साक्षात् है ....

परमात्मा की सत्ता से आँखे देखती है… अपना जो आपा है , उस को बोलते है "साक्षात् अपरोक्ष"

“जो साहिब सदा हजुरे अँधा जानत ताको दूरे ”

जो जैसे शरीर में बैठा है , कुविचार में बैठा है , सत्कर्म में बैठा है , व्यर्थ कर्म में बैठा है , वैसा ही वो व्यवहार कर रहा है… क्यों की जो साक्षात अपरोक्ष है , उधर को गति नहीं हुयी ........!



मौलाना जलालुद्दीन राजसी ठाठ से रहेते …सब कुछ देखने के बाद लगा की आयुष्य तो नष्ट हो रहा है… तो बड़े घराने के लोग भी फकीर हो जाते…बुध्द फकीर हो गए… मैं एक आइएस ऑफिसर को जानता हूँ , जो फकीर बन गए, संत बन गए… अभी ८७ साल के है…. ५० साल से साधू बन गए है …



(कितने भी सुख भोगे तो भी )‘आखिर आयुष्य तो नष्ट हो रहा है’… शरीर छुट जायेगा तो बाद में भी हम रहेंगे… तो हम कौन है?ऐसी तड़प बढ़ जाती है…



जैसे मोरारजी भाई बोलते कि, प्रधान मंत्री पद में वो शांति नहीं मिली, जो रमण महाराज के चरणों में मिली …

साक्षात् अपरोक्ष का जो सामर्थ्य है उसी से काम चलता सृष्टी का .......उस को नहीं जानते इसलिए सारा करा कराया चला जाता… इसलिए शरीर को अपना मानते, वस्तुओ को ‘मेरा’ मानते …



पड़ा रहेगा माल खजाना, छोड़ त्रिया सूत जाना है l

कर सत्संग अभी से प्यारे , नहीं तो फिर पछताना है ll



(त्रिया माने स्री /पत्नी और सूत माने बेटा)

तो सत्य का संग करो.. जो सत् स्वरुप है ॥ ज्ञान स्वरुप है ..जिसका कोई अंत नहीं है , उस ब्रम्ह स्वरुप का ज्ञान पा लिया , अनुभव पा लिया तो साक्षात् अपरोक्ष "परोक्ष" हो गए !!

मनं तू ज्योति स्वरुप अपना मूल पहेचान l



…औखी घड़ी आती तो मृत्यु के एक झटके से सब पसार हो जायेगा… क्यों की जो साक्षात् है , उस का पता नहीं है, उस को जानते नहीं है…।ब्राम्ही स्थिति प्राप्त कर….(सभी भक्त गा रहे है॥)



ब्राम्ही स्थिति प्राप्त कर , कार्य रहे ना शेष l

मोह कभी ना ठग सके , इच्छा नहीं लवलेश ll

पूर्ण गुरु कृपा मिली , पूर्ण गुरु का ज्ञान l

आसुमल से हो गए ,साईं आसाराम ल



खाली आसुमल से आशाराम हो गए ऐसा नहीं …

गदाधर के सामने काली माता प्रसन्न हो कर प्रगट हो जाती थी…(तो भी काली माँ ने कहा कि, 'तोतापुरी गुरु से दीक्षा ले लो' , तो गदाधर बोलते ) “माँ, मैं गजरा बना के लाता हूँ , तो तुम स्वीकार करती हो … मेरे सूंघे हुए फूल भी मैं प्रेम से देता हूँ तो आप स्वीकार कर लेती हो..(तो भी क्यों ?...गुरु के पास जाने क्या जरुरत है?)

............ ‘प्रेम’ तो वशीकरण मंत्र है .......शिव जी का ऐसा प्रेम.. ऐसी प्रेम की निगाह.. ऐसा प्रेम का भाव कि , जिस पर पड़े निहाल हो जाए!… तो वो प्रेम स्वरुप नित्य नविन उस में टिके है शिव जी और श्रीकृष्ण …उस में जो जितने टिके है, उतने ही लोग खींचे चले आते है…!

…और प्रेम किस से होता है? जिस में ‘अपनत्व’ है , उस में प्रिती होती .....अपनापन जहाँ से शुरू होता है , वो है "साक्षात् अपरोक्ष "…!

जाती प्रिय, परिवार प्रिय , पत्नी प्रिय..शरीर प्रिय …तो शरीर पर मुसीबत आती है ..तो स्थूल इन्द्रिय तो हाथो से बचाती है.. जो ज्यादा नजदीक है उस को रक्षा में लगाते …फिर भी किसी को पूछे कि, फांसी चाहते या हाथ कटवाओगे तो बोलेंगे कि, 'हाथ कटवाना ठीक है , जान तो बचेगी'….ऐसे आत्मा के नजदीकी जो चीज हो गयी उस को बचायेगा और जो दूर है उस को कुर्बान करेगा……..

शरीर से भी अपना आपा अधिक प्रिय है , तो अपने आपा पर कोई मुसीबत आई तो शरीर की बलि देकर भी अपने आपा को सुखी रखना चाहते …।अपना आपा इतना प्रिय होता है की , जिस के लिए शरीर भी दे देते …........ मरते है… तो मैं सुखी हो जावूँ …(ये ही भाव होता है)...



मेरे पिताजी जब अंतिम समय आया , शरीर जरा बीमार रहेता था तो पूछते , “आज कौन सी तिथि है? पंचम है क्या?....एकादशी कब है?…अच्छा कल का दिन भी रहेना पड़ेगा !”

तो भाई पूछते .... “क्या बोल रहे?”

…तो चुप हो जाते…

और जब एकादशी की सुबह हुयी तो , “ये जेठ्ठे, ये जेठ्ठे” .....

(मेरे भाई का नाम था..)..गाय का गोबर ले के आओ… लिंपण करो… और मुझे निचे धरती पर रखो…गीता का पाठ करो …।

जब उन को निचे धरती पर रखा गया तो मेरी माँ को हाथ जोड़े.......

और बोलते "मरने की कला सीखता हूँ..........!जाने अनजाने में जो मैंने २ शब्द बोले माफ कर देना .....”

....माँ तो रोने लगी, "ये क्या बोल रहे?”

…फिर माँ भी बोली की , “आप भी मेरे को माफ कर दो!”…

......तो ये हाथ क्यों जोड़े? ‘गाय का गोबर का लिंपण करो’ क्यों? क्यों की , ‘शरीर छूटे तो छूटे, मैं दुखी नहीं हूँ’…ये ही चाहते..है ना ?

.....तो आप का आपा साक्षात् है… अपरोक्ष है ..जो आप देख रहे वो आप नहीं है…। घर में आए तो घर आप हो गए क्या? ऐसे जो भी शरीर में बैठे हो , उस को ‘मैं’ मान रहे है …आप वो नहीं हो…आप तो चैत्यन्य रूप हो , ज्ञान स्वरुप है ..उस को जब तक नहीं जाना तब तक कुछ नहीं जाना…जिस का आत्म ज्ञान ‘मैं’ तक हो जाता तो हो गया!…तोतापुरी गुरु ने गदाधर से रामकृष्ण देव को प्रगट कर दिया..!!

संत के लिए कुछ (ग़लत भाव से)बोले तो प्रकृति की तरफ़ से उस के तीनो जाए तेज, बल और वंश ....... हम तो चाहते सब का मंगल हो लेकिन प्रकृति नहीं छोड़ती…।प्रकृति के नियम है..

संतो के प्रति आदर होता , प्रेम होता , स्नेह होता तो उन को जो शांति मिलती वो ही जानते है .. …



साक्षात् भगवान ही कर्म का नियामक है, कर्म का प्रेरक है और कर्म का फलदाता है…और वो ही कर्म कराता है...... तो वासना नुसार कर्म करते तो दुर्गति होती… धर्म के अनुसार करते तो कर्म की गति ऊँची होती …।कर्मो से मुक्त होते जाते… धर्म और संस्कृति के लिए कर्म किया तो देर सबेर आप को चमका देता… संस्कृति और धर्म का काम फल देता ही है….और स्वार्थ से करते तो वो थोड़े समय के लिए दिखता है, लेकिन बाद में ऐसे चपेट में आ जाते की क्या बोले……ऐसे कई लोग देखे है …



और ऐसे भी कई लोग देखे है जो सत्संग में आए और उन के जीवन मे बहोत सुंदर परिवर्तन आए…......अगर आप को लाभ हुए है तो ईमानदारी से हाथ ऊपर करो… हम्म्म…तभी तो आते है..आर्थिक, सामाजिक, शारीरिक लाभ तो होते ही है…लेकिन मृत्यु के समय भी अगर इस ब्रम्हज्ञान के सत्संग की याद आ जाए तो ईश्वर की यात्रा कर सकते है !! :-)



....और लाभ तो देख सकते है लेकिन इस ब्रम्हज्ञान का लाभ तो ब्रम्हाजी की तराजू भी नहीं तोल सकती, इतना लाभ होता है !! :-)

…...जो आत्मज्ञान मैं दे रहा हूँ वो वेद प्रमाणित बोल रहा हूँ…अपने अनुभव को छूकर बोल रहा हूँ…इस का लाभ तो होगा… !!



जीभ को तालू में लगा के ६ मिनट तक देखो… कुछ ही दिन में अनुभव होगा… खाली जिव्हा को एक जगह रखने से ऐसा होता है…

विश्वास के साथ करो तो लाभ होगा ही ….वैदिक संस्कृति में बहोत साफ-सुथरा ज्ञान भरा हुआ है….



…तात्विक ज्ञान की गाड़ी तो कभी कभी चलती…।बाकि तो मिडल क्लास की अध्यात्मिक होता है….



जिस को कभी छोड़ ना सके वो साक्षात् अपरोक्ष है आप का आपा है …



क्या करे ? कब मिलेगा॥ऐसे लोगो को बहोत ऊँची बात कही है कबीर जी ने … ‘भटक मुआ…। खोजत खोजत युग गए॥”

पैरो तलें ही अंगूठी या हीरा दबा है, और खोजत फिर रहा है … ऐसे ह्रदय में ही परमात्मा है..और युगों से खोजत फिर रहा है..

...सोचो की कितने भी किमती हीरे मिले , प्रमोशन का लैटर मिल गया महीने में २ करोड़ की आमदनी होगी ऐसा लिखा है …..तो भी ऐसे लैटर को कितनी देर पकड़ कर बैठोगे? साक्षात् के परोक्ष अपरोक्ष सब छुट जायेगा…साक्षात् अपरोक्ष में आओगे नहीं तब तक आप को दुसरे दिन के लिए लायकात नहीं मिलेगी..(सब कुछ छोड़कर जब तक गहरी नींद मे नहीं जायेंगे तब तक दुसरे दिन के लिए फ्रेशनेस नहीं मिलेगी..)

साक्षात् अपरोक्ष के बल से ही सब व्यवहार चलता है ......

.... आत्मा परमात्मा देव साक्षात् अपरोक्ष है ..सपने मे गंगाजी नहाये तो गंगा जी की धारा, नहाने वाले अन्दर बाहर सब आत्मदेव ही है…सब सपना …लेकिन आत्मदेव तो वोही का वोही है ..



...सब कुछ छोड़ के उस की शरण जाते हो , तब सब कुछ लाने की योग्यता लाते हो…। सब कुछ छोड़ना है और उसी को अपना मानते हो…और जो कभी छूटेगा नहीं वो ही पराया लगता है …जिस को अपना मान रहे हो , मर जायेंगे तो सब यहाँ ही छूटेगा…जरा तो रहेम करो …!



नारायण हरी नारायण हरी



....जितने उस प्रभु के पास जाते उतने रसमय होते ........आत्म स्वरुप होते …...तेरे फूलो से भी प्यार॥तेरे कांटो से भी प्यार… क्यों की देनेवाले हाथ प्रभु के है…....... आप को मित्र मिलते है तो आनंद आता की नहीं आता? आता है! क्यों कि वो आप को निकट का लगता है…ऐसे ही जो सब से निकट का साक्षात् अपरोक्ष है , वो अपने को मिलते तो जब सभी में वो ही मित्र दिखाई देता तो कितना आनंद आता होगा सोचो..!!



आप लोग तो नींद में जाते… कैसे पता ही नहीं… हम तो रोज सोते नहीं …साक्षात् अपरोक्ष में जाते… उठे तो भी साक्षात् अपरोक्ष मे ..! : -) …हम नहीं जाते औरो के जैसे ऐटैच टॉयलेट में ! :-) ..हम तो सीधा साक्षात् अपरोक्ष में …!! इसलिए तो आजकल बापू कैसे लगते ? ..ज्यादा आनंदित …ज्यादा निर्भीक…ज्यादा उत्साहीत लगते है की नहीं ?…तो ये बात है!.. तो साक्षात् अपरोक्ष है ना …:-)

नारायण हरी

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय… प्रिती देवाय … माधुर्य देवाय… शक्ति देवाय…!



कितने भी मन्दिर मस्जिद जाओ....... भगवान कहा होगा?..

साक्षात् भगवान के सत्ता से ही दिखेगा जो भी दिखेगा… …क्या ख़याल है? …उस बड़े की बडाई कोई माप नहीं सकता…एई है :-)

प्रभु तेरी जय हो......! वो मधुमय है, इसलिए माधव है.. इन्द्रियों के द्वारा विचरण करता इसलिए गोविन्द है.. इन्द्रियों का पालन करता (गो माना इन्द्रिय) इसलिए गोपाल है… कभी छुटता नहीं इसलिए वोह अच्युत है …रोम रोम में रमता इसलिए राम है …चित्त की धाराओं मे रमण करता इसलिए राधा रमण है…।



तस्याहम सुलभं पार्थ…।


श्रीकृष्ण कहेते मैं उस को सुलभ हूँ जो मुझ मे नित्य है…....कितना भी एम् ए पढो का पढो बी ए पढो… मैं तो कहेता हूँ दसवी की क्लास भी सुलभ नहीं जितना भगवान को पाना सुलभ है!!…४०साल से भी नहीं मिलते तो उस की मांग नहीं, प्रिती नहीं इसके लिए नहीं मिलते…असली मांग , असली प्रिती नहीं इसलिए दुर्लभ होते है l

.....कितना सुलभ है !

...परीक्षित को दिन में मिल जाता ! कोई दसवी की परीक्षा पास होगा क्या दिन में?…

भगवान नहीं मिलते तो वो तो कभी बिछडा ही नहीं है ..

नारायण नारायण ...

बापू मिलते नहीं, एकांत में हैबोलते फिर भी हॉल तो भर गया है!!

एक लेख किसी ने पढ़कर सुनाया।दिल उँडेल दिया है लेखक ने....... :-)



(पंजाब केसरी नाम की मासिक पत्रिका मेंसंत समाज की अग्नि परीक्षानाम का लेख आया है…)नारायण नारायण नारायण नारायण



( हरी ॐ!सदगुरुदेव जी भगवान की जय हो!!!!!
गलतियों के लिए प्रभुजी क्षमा करे…।)

Saturday, September 6, 2008

मनुष्य जन्म क्यो?..

मनुष्य जन्म क्यो?..
सत्संग_लाइव सोमवार , 8th ओक्ट. 07, भारतीय समय :7pm
( ग्वालियर शहर से )
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परम पूज्य सदगुरूदेव संत श्री आसाराम बापूजी की अमृतवाणी :-
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आरती हो रही है..

ओम जय जगदीश हरे भक्त जनों के संकट क्षण मे दूर करे ओम जय जगदीश हरे
जो ध्यावे फल पावे दुःख विनशे मन का सुख संपत्ति घर आवे कष्ट मिटे तन का l ॐ जय ...
माता पिता तुम मेरे शरण गहू मैं किसकी तुमबिन और ना दूजा आंस धरु जिसकी l ओम जय जगदीश हरे..
तुम पूरण परमात्मा तुम अंतर्यामी पार ब्रह्म परमेश्वर तुम सुब के स्वामी lओम जय जगदीश हरे..
तुम करुणा के सागर तुम पालन करता मैं सेवक तुम स्वामी कृपा करो भरता l ओम जय जगदीश हरे
तुम हो एक अगोचर सब के प्राणपति किस विधि मिलू दयामय तुमको मैं कुमति l ओम जय जगदीश हरे..
दिन बंधु दुःख हर्ता तुम ठाकुर मेरे अपने हाथ उठाओ,अपनी शरण लगाओ द्वार पड़ा तेरे l ओम जय जगदीश हरे..
विषय विकार मिटाओ पाप हरो देवा स्वामी कष्ट हरो देवा श्रध्दा भक्ती बढाओ संतान की सेवा l ओम जय ..
तन मन धन है तेरा स्वामी सुब कुछ है तेरा , तेरा तुझको अर्पण,क्या लागे मेरा l ओम जय जगदीश हरे..

स्वामी मुझे ना बिसारियो चाहे लाख लोग मिल जाये..हम सम तुमको बहोत है , तुम सम हमको नाही..दीन दयाल को बिनती , सुनो गरीब नवाज़ ..जो हम पुत कपूत है तो है पिता तेरी लाज..हरी हरी ओम हरी ओम …..

सच्चा सुख ….….
...सोने की कटोरी है, सोने के ग्लास है …चांदी की थाली है , कितना भी सुख है लेकिन बाहर का वैभव है , अन्दर का वैभव नही तो शांति पाना कठिन हो जाता है…दुनिया की सभी चीजे मिली लेकिन एक चीज नही है मिली , तो शांति नही मिलेगी…सच्चा ज्ञान का आत्मसुख, शाश्वत सुख , भक्ती का सुख जब तक नही पाओगे तब तक दुनिया भर कि चिजो में सुख ढूंढते हुये फिरोगे , लेकिन सुख नही मिलेगा….संध्या के समय देखते कि , कितने जिव जंतु है ..दिया जलाओ तो दिखते है..संध्या होती है तो विकारों से भटकने लगते है..क्या हम इन्सान होकर भी उन जिव जन्तुओ जैसे हो रहे है, सोचो….नही तो जैसे ही संध्या होती है , रात होती है तो..
हे शराब तू सुख दे..
हे पान मसाला तू सुख दे..
हे काम विकार तू सुख दे..
हे परफ्यूम तू नाक को सुख दे….इन्द्रिय सुख को ही सच्चा सुख मान रहे…तो हम भी वो जिव जन्तुओ जैसे नही हो रहे है क्या?

आप का मनुष्य जन्म क्यो?

मनुष्य के मस्तक मे २ अरब कोशिकाये है..उसमे से .1% कोशिकाये विकसित हो जाती है तो दुनिया में बुध्दिमान कहेलाता है..दुनिया की सभी विद्या , सभी ज्ञान वो पाने की क्षमता रखता है… सिर्फ .1% कोशिकाये (नुरोन) विकसित होने पे उसे बुध्दिमान माना जाता है !!..लेकिन बाकी के नुरोन विकसित नही हुये है...1 % नुरोन / कोशिकाये विकसित होने से मनुष्य बुध्दिमान हो जाता है, प्रतिभा सम्पन्न हो जाता है..एक एक ग्रह नक्षत्र को चलित कर सकता है , इतनी ताकद उस में आ जाती है.. लेकिन कितने दुर्भाग्य की बात है कि , करोडो वर्ष से मनुष्य इस धरती पे है लेकिन कितनी योग्यता विकसित कर पाया है ?

संत कबीर कहते है..मूरख ग्रंथि खोलें नही…

...पुरुषार्थ को महत्त्व नही देते..बस फालतू की बाते जुटाने मे कंगले हो गए है…डिग्री मिले..नोकरी मिले..मकान मिले..पति मिले ..पत्नी मिले..ये मिले वो मिले.. .फालतू की चीजे बटोर ने में , खोजने मे सारी जिंदगी तबाह कर देते है..झूट ,कपट का सहारा लेते है..अरे मनुष्य तुझ में कितनी शक्ति है…उसे जान ले..खुद को पहेचान ले..

इन्सान की बद भक्ती अंदाज से बाहर है l
कम्बख्त , खुदा होकर बन्दा नझर आता है…!!

अन्दर की चेतना को जगाओ ..अन्दर की चेतना जगी , भक्ती है तो खुदा को पा लेगा…इतनी शक्ति है इन्सान तुझ मे !
संसार मे सुख खोजना कुसंग है और सच्चे सुख का तरीका जानना सत्संग है..!!

सत्संग की तो..

एक घड़ी आधी घड़ी आधी में पुनि आध l
तुलसी संगत साध कि हरे कोटी अपराध..ll

(सव्वा छे मिनट सत्संग सुनना भी मनुष्यों के कोटी अपराधो का पाप दूर कर देता है..)
- सत्संग से अज्ञान दूर होता है .. जैसे :-
* नंगे सिर धुप मे घूमने से स्मृति कमजोर होती है ,
* अमावस्या , पूनम के दिन सम्भोग कराने से विकलांग बच्चे पैदा होते है..
* होली ,दिवाली , जन्माष्टमी और शिवरात्रि को सम्भोग करने से शरीर की शक्ति नष्ट हो जाती है , शरीर का नुकसान हो जाता है …. काम भी गर्भ दान करने के लिए … नही तो फिर रोना है..
* भोजन भी ज्यादा करोगे , मजा लेने के लिए खायेंगे तो बीमार पड़ेंगे....…
..तो ऐसी बाते समझते , तो सत्संग से तो कितना फायदा होता है सत्संग ना होने के कारन कितने ही लोग विकारी जगत मे परेशानियों के खायी में जीते जा रहे है....सत्संगियो के कारन कितनी ही अच्छी परम्पराये चल रही है.... सेवा के काम होते रहते.... सूझ बुझ बढ़ती है..
सुबह २०-२५ मिनट भगवान को याद करो तो दिन अच्छा जाता है..रात को भगवान का विचार कर के सोने का तरीका सत्संग से जान लो तो रात उन्नत हो जाती है..काम करने से पहले भगवान का नाम लो तो काम अच्छा होगा और बाद मे भी वह कर्म " भगवान तुम्हारी कृपा से ये काम हुआ " , उसका फल भगवान को अर्पण करो तो कर्म बन्धन से भी बचते हो..
सुबह उठाकर भगवान मे थोड़ी देर चुप हो जाओ तो दीमाग के नवानु (nuron) भी विकसित होने लगेंगे..सारस्वत्य मंत्र लिया तो कितने बच्चो को फायदा हुआ है… एक लड़का भैसे चराता , रात की बासी रोटी दुसरे दिन खाता , टायर कि आढाई रुपये कि चप्पल पहेनता… लेकिन उन्नत होने का तरीका जान लिया तो उन्नत हो गया..अभी गो-एअर मे इंजीनियर है.. डेढ़ लाख पगार कमाता है ..दिक्षा से क्षितिज सोनी मे कितना परिवर्तन आया… अजय मिश्रा जो 50 % मार्क्स लाता , स्कुल से निकालने की धमकी मिल गयी थी , लेकिन दिक्षा से तरीका जान लिया , तो नोकिया कंपनी मे मेनेजर बन गया , आढाई लाख पगार कमाता है..कठिन है क्या?
बुध्दी का विकास कैसे करना है इसका तरीका जान लो..श्रध्दा भक्ती से लगे रहो तो ईश्वर को पा सकते हो..तो ये सब पाना तो बहोत छोटी बाते है… तो ऐसी छोटी बातो मे जीवन को क्यो नाश करते हो?
(कृपया क्षितिज सोनी का अनुभव सुनाने के लिए यहाँ क्लिक करे http://www.ashram.org/newweb/bsk/picturegallery/shitij.html
और अजय मिश्रा का अनुभव सुनाने के लिए यहाँ क्लिक करे http://www.ashram.org/newweb/bsk/picturegallery/ajay.html )

सब के भीतर राम… मूरख ग्रंथि खोलें नही..ऐसे कर्म क्यो?

कैसा होगा ब्रह्मज्ञान?


..आप के बुध्दी का लाख-वां हिस्सा बुध्दी सिर्फ विकसित होती है…. बाकी की छुपी है…छुपी हूई बुध्दी का उपयोग करना ही सत्संग है..आत्म ज्ञान से भागवत भक्ती करो तो लोकलोकांतर में जा सकते है..(बापूजी ने गन्धर्व जगत के बारे में बताया ) मानुषी सुख के सौ गुना (multyply by 100) सुख गन्धर्वो के पास है….गन्धर्वो से सौ गुना सुख देवताओ के पास है ..और देवातओंसे सौ गुना सुख देवो का राजा इन्द्र के पास है..इन्द्र के पास ऐसा सुख होते हुये भी इन्द्र ब्रह्मज्ञानी के सामने बौना है तो कैसा होगा ब्रह्मज्ञान….! :-) सोचो..
..एक से एक अच्छे और सच्चे मनुष्य है लेकिन अपना सुख कही और मानते है… कोई काम में , कोई धन में तो कोई मान में सुख खोजता है …लेकिन अच्छे लोग है , जो मान करने योग्य इन्सान है , उनसे कई गुना ज्यादा मान राष्ट्रपति को होता है..क्योकि मान सन्मान तो राष्ट्रपति के द्वारा मिलता है ,.. राष्ट्रपति से कई ज्यादा मान सन्मान , धन और सुख तो राजा इन्द्र के पास है , लेकिन वो भी ब्रह्मज्ञानी के आगे खुद को बौना कहता है....तो ऐसे ब्रह्मज्ञानी के सत्संग द्वारा जो भी समझ मे आता है , उसके अनुसार थोडा भी चले तो काम बनता है…

अगर साधना अधूरी रहे गयी…..….

समझो की सत्संग करते , आप की आत्मज्ञान की यात्रा पुरी नही हूई और मर गए तो भी आप जो भी साधना करते , शुभ कर्म करते तो “ सत् ” की अभिलाषा से करते… करनेवाला “सत्” की अभिलाषा से करता तो “सत्” तो सदा रहता है , शरीर सदा नही रहता ….. चेतना “सत्” है , सदा साथ रहता है… शरीर यहा छोडेंगे , लेकिन हम मरने के बाद भी विश्रांति लेंगे स्वर्ग में.. ..पुण्य खर्च नही होंगे… मैं स्विटजरलैंड से अमेरिका गया तो स्विटजरलैंड मे एक जगह मुझे रुकना पड़ा , तो उनको मेरा ख़याल रखना पड़ा.. मेरे रहने का , खाने पिने सोने की जिम्मेदारी उनकी ..वैसे ही आप साधना करते करते मर गए , साधना पुरी नही हूई , तो भी आप का स्वर्ग मे ख़याल रखना ईश्वर के जिम्मे हो गया.. अवसर पाकर फिर जनम होगा , किसी महापुरुष का सान्निध्य प्राप्त होगा और जहासे आप की यात्रा रुकी थी वहा से आगे चालू होगी..भगवान श्रीकृष्ण ने गीता मे बताया है..(परम पूज्य बापूजी ने श्लोक बताया.)
..जैसे बुध्द पूर्व जनम के योगी थे , सिद्धार्थ नाम से राजपुत्र होकर राजा के यहा जनमे.. राहुल नाम का पुत्र भी हुआ…लेकिन आगे भगवान बुद्ध हो गए…हम भी पहले जनम की तिजोरी साथ मे लाए थे तो ४० दिन में काम हो गया..जरुरी नही कि सब का ४० दिन में काम होगा…हम ४० दिन में पास हुये तो अगले जनम कि पढाई काम आयी..तो जिसकी जैसी पढाई होगी वैसे काम बनेगा…..अभी थोडासा ये कर लो , वो कर लो ..तो समय बर्बाद करो.. आप यहा मजदूरी करने के लिए मनुष्य जनम लेकर नही आये हो…शरीर की वाहवाही सुनने के लिए नही आये हो…मकान बनवाके उसे छोड़कर मर जाने के लिए नही आये हो..धन जमा करके उसे बैंक मे जमा कर के छोड़कर मर जाने के लिए नही आये हो…मरने से पहले अमरता पा ले..कठिन नही है……
.….सुबह उठे .. बिस्तर पर ही उस परमात्मा में शांत होने के बाद दिन शुरू करे… नहाने के बाद एक कटोरी मे पानी लेकर लंबा श्वास लेकर " ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ " इस प्रकार बोले १०० बार ....( ५ बार लम्बा श्वास लेकर ॐ ॐ बोलते रहोगे तो १०० बार हो जाता है..).. और वो पानी पियो.. तो ईश्वर कि सत्ता से काम करनेवाली उस बुध्दी का कार्यालय साफ सुथरा रहेगा…बुध्दी विकसित होगी…जीवात्मा को परमात्मा से मिलाने मे विघ्न पैदा ना हो इसलिये सहयोग मिलेगा…साधना करने की ठान ली है तो परमात्मा का सहयोग होगा होगा होगा ही!!!! :-)

ईश्वर कि साधना करने से पाप जल जाते है , पुण्य काम आता है ..फल होता ही है..ग्वालियर वालो को बापूजी के प्रति बहोत स्नेह है तो बापूजी को भी ग्वालियर वालो के प्रति प्रीति बहोत है.. …. कुछ लोग नए नए आते है..”बापू हरी ओम ” बोलते तो मैं समझ जाता हूँ ..श्रध्दा है , लेकिन समझदारी नही है…. दूर से दर्शन करते “ महाराज हरी ओम , कैसे है या कैसी तबियत है ? ” संत के पास गए हो या बीमार के पास ? कुछ लोग नए नए सत्संग मे आते तो पीछे से घुसकर आगे आकर बैठ जाते है..पीछे वालो का ख़याल नही करेंगे..तो एक दो बार आते तो समझ जाते कि ऐसा करना पाप है…फिर ऐसा नही करते..यहा सत्संग मे कोई हारता- जीतता नही है..सभी की जय होती है….सत्संगियो के पाप ताप मिटने लगते है , लेकिन उनका जिनसे सम्पर्क होता है उनको भी फायदा हो जाता है..सभी समितीवाले , नए , सभी सेवा कर रहे है… कोई विद्या दान करता है , कोई गौ-दान करता है ..लेकिन सत्संग दान बहोत बड़ा दान है…सत्संग का आयोजन कराने मे , सत्संग दूसरो तक पहुचाने मे बहोत पुण्य होता है…

शिवजी कहते है ,

“ धन्यो माता पिता धन्यो गोत्रम धन्यो कुलोदभव ..
धन्याच वसुधा देवी यत्र स्यात गुरू भक्तता "

….जिनको सत्संग में रूचि है उनकी माता धन्य है , पिता धन्य है , आप के कुल और गोत्र धन्य है..आप के कुल मे उत्पन्न होने वालो को भी शिव जी पहले से धन्यवाद देते है… ऐसे गुरू भक्त जहा रहते उनके निवास से वसुधा देवी भी धन्य हो जाती है.

* बुध्दी का विकास , धारणा शक्ति विलक्षण कैसे करे?

सत्संग में आते है , बुध्दी विकसित होती है..ज्ञान हो जाता है कि , संसार मे कैसे जीना है , कब क्या करना है , ज्ञान मे , बुध्दी मे , विचारो मे लाभ होता है.. मैं बच्चा था ,लेकिन तभी जो “मैं” था , बचपन चला गया अभी भी वोही “मैं हूँ ”…जवानी आयी, जवानी चली गयी लेकिन “मैं” वोही हूँ ..तो मैं मरुंगा तो शरीर मरेगा “ मैं” तो नही मरेगा… क्यो कि मरने के बाद भी पता चलेगा कि “मैं स्वर्ग जा रहा हूँ , मैं नरक जा रहा हूँ ” ….तो “मैं” तो रहेगा…तो सत्संग से समझ बढ़ती है कि जो नित्य है , कभी नही बदलता है , वो मैं हु , ये शरीर “मैं” नही हूँ ..ऐसे ज्ञान से जो सदा रहता है , उसे राम मे शांति मिलती है..दुःख आया तो भी ओउम ओउम ओउम ओउम ओउम बोलकर हास्य कर के , शरीर को दुःख आया है “मैं” तो सत्च्चितानंद आत्मा हूँ .. जो सदा आनंद में रहता है..ऐसा सोचता है तो योग बन जाता है…
ओउम ओउम ओमोम ओउम ओउम शांति देवा..
आनंद देवा , प्रभु देवा तेरी जय हो…हा हः हा हा हा .. … :-) :-)
….इस प्रकार भगवान का नाम लेकर आनंद में जीने लगता है..जप ध्यान करेगा सत् स्वरुप , चेतन स्वरुप , आनंद स्वरुप भगवान साक्षी है तो जान जाता है कि हम उन्हीकी सत्ता से जीते है , मरते है..बचपन चला गया, जवानी चली गयी , लेकिन फिर भी उसे देखनेवाला नही गया , वो आत्मा “मैं हूँ ..” ऐसा उंचा गुरुज्ञान सत्संग में सुनते तो भगवत सत्ता का प्रभाव बढ़ता है..बुध्दी विकसित होती है , धारणा विलक्षण हो जाती है..

जब ही नाम ह्रदय धर्यो , भयो पाप को नाश l
जैसे चिनगी आग की , पडी पुराने घांस ll

.....पुराना घांस १० किलो हो चाहे हज़ार किलो हो , एक चिनगी भी पडी तो सारी घांस जल जाती है उसी प्रकार सत्संग से आप के कितने ही जन्मों के पाप ताप कट जाते है , जल जाते है…सुशुप्त शक्तिया जागृत होने लगती है..कोई कठिन नही है..लेकिन आजकल सत्संग की चीजे कम और कुसंग की चीजे ज्यादा हो गयी है..अपने देश मे फिर भी ईश्वर को पाए हुये आत्मज्ञानी महापुरुष है..लाखो करोडो लोग रोज सत्संग भी सुनते है… एक सत्संग सुनने वाला आदमी रोज ९ लोगो को मिलता ही होगा.. तो रोज जितने भी लोग सत्संग सुनते होंगे उनके सम्पर्क मे आने वाले का भी अच्छा हो जाता है…कई लोग प्रत्यक्ष नही आ सकते लेकिन फिर भी किसी ना किसी माध्यम से सुनकर भी लाभ लेते तो अच्छा है.. एक बार सत्संग मे मैंने बोला कि ठेकेदार काम करनेवालों को कम पैसा देते और उनका शोषण करते तो किसी न्यायाधीश ने सुना और काम करनेवालों के हीत में निर्णय कर दिया कि परिश्रम करनेवालों का शोषण करना क़ानूनी अपराध है..उस न्यायाधीश को धन्यवाद है..ऐसा सत्संग से होलसेल में फायदा हो जाता है….करोडो लोगो को फायदा होता है..
उज्जैन से १०० किमी दूर रतलाम के पास पेतलावद है , वहा मैं कई सालो से नही गया ..वहा के लोग बुला रहे थे …तो एक दिन मंदिर के घुमट पर अचानक चित्र उभर आया ..देखते देखते मंदिर मे बापूजी का फोटो आया..अब तो वहा लाईन लगी है…किसने देखा पेतलावद जाकर हाथ ऊपर करो…लो! कितने देखकर आये है….!! तो ईश्वर कि लीला होती रहती है…
…भगवान कि शांति मे हमारा मन शांत हो.. भगवान सत्ता देते तभी हमारी वाणी बोलती है....भगवान सत्ता देते तभी हमारी आंखें देख सकती है , भगवान सत्ता देते तभी हमारे कान सुन सकते है …. उस भगवान में मन शांत करते तभी प्रेरणा देते है , बुध्दी को निर्णय करने की क्षमता देते है … शरीर को कार्य करने की शक्ति देते है…मन बदल जाता है , निर्णय बदल जाते है , फिर भी जो नही बदलता वो है मेरा आत्मदेव ! उसी में मन को लगा देंगे तो उध्दार !!!!!

हरी ॐ हरी ॐ हरी ॐ हरी ॐ हरी ॐ
हरी ॐ हरी ॐ हरी ॐ हरी ॐ हरी ॐ

मन नही लगता तो क्या करे?

…सुज़ बुज़ बढ़ेगी तो परमात्मा में मन लगेगा… अगर फिर भी भगवान में मन नही टिकता तो मन को बोलो भाग कितना भागता है… :-) एक बार पूछा किसी ने कि , “ बाबा , शादी होती है तो दूल्हा घोड़े पे क्यो बैठता है ? ”
शादी होती तो वर राजा घोड़े पे क्यो बैठते ? तो बोले कि… " इसलिये बिठाते है कि अभी भी वक्त है…. भाग सके तो भाग..नही तो पुरी जिंदगी घोड़े कि तरह संसार का बोझ ढोना पड़ेगा…” !!!! :-)
.. वैसे मन को बोले कि भाग सके तो भाग..भाग भाग कर कहाँ जाओगे ?

परमेश्वर तो अपने अन्दर ही है….
.
अँधा जानत ताको दूरा , कहे नाथ मैं सदा हझुरा !

…मंत्र दिक्षा से ३३ प्रकार के फायदे होते ही है..जिसके मुख मे गुरू मंत्र उसको लाभ होता ही है भगवान शिव जी कहते है..

गुरुमंत्रो मुखे यस्य तस्य सिध्यन्ति नान्यथा
दिक्षाया सर्व कर्माणि सिध्यन्ति गुरुपुत्रके


…. जिसके मुख में गुरुमंत्र है उसके सभी काम सिध्द होते है..दिक्षा से गुरुपुत्र माने जिसने दिक्षा ली उसको लाभ होता ही है..इसलिये भगवान शिव जी ने पार्वती को वामदेव गुरू से दिक्षा दिलाई ,भगवान कृष्ण ने संदीपनी गुरू से दीक्षा ली थी , भगवान राम ने वशिष्ठ जी से दीक्षा ली थी..


नारायण नारायण नारायण नारायण नारायण
ॐ शांति शांति शांति

हरि ओम ! सदगुरूदेव भगवान की जय हो!!!!!
(गलतियोंके लिए प्रभुजी क्षमा करे..)

Wednesday, March 19, 2008

Negative Thinking: The Cause of Ruin

(Excerpts from Satsang of Pujya Sant Shri Asaramji Bapu)

Once while roaming around, a person reached a serene and scenic region in the Himalayas. The atmosphere there was simply celestial. The story has it that there was a Kalpa-Vriksha. As the man felt tired, he lay down under the Kalpa-Vriksha to take rest.

A thought flashed through his mind as to how nice that would have been had he got something to eat and drink. The moment he thought so, delicious foods and drinks appeared on the spot. He savoured the delicacies. Then he felt sleepy and fancied having a bed to lie on. And a bed appeared as well. After some time the cold weather of that place disturbed his sleep and he wished for a blanket. Then and there he got a blanket as well. He was very puzzled as to how it was that all his wishes were being instantly fulfilled.

He was not aware that he was sitting under a Kalpa-Vriksha. A doubt cropped up in his mind that a demon might be providing him with all those things. Plagued by suspicion and fear, he wondered as to what would happen if the demon came and devoured him. And lo! A demon came there and gobbled him up. Inspite of sitting under a Kalpa-Vriksha, that man met with an untimely death purely due to his own negative thinking.

This story may be a fiction; nevertheless it is verily true, As one thinks, so he becomes. If we think of other?s good virtues, sooner or later we would develop those virtues. And if we contemplate on other?s vices, we would end up with those very same vices in ourselves. Therefore, we must refrain from finding faults with others.